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पहाड़ी संस्कृति, जनजीवन और वेदना का आइना ‘मेरियां गल्लां गाजलबेल’, इसलिए मिला डॉ विद्या चन्द पहाड़ी साहित्य पुरस्कार

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विचार श्रृंखला मानवीय मन को उद्वेलित करती झकझोरती झंझोड़ती हुई नवनिर्मिति की नवीन राहें बना ही जाती हैं। मानव सृष्टि का प्रबुद्ध एवं जागरूक प्राणी होने के नाते अपने भावों विचारों को सहेज-समेट कर उनका निरीक्षण-परीक्षण करता रहता है और उनसे भी चार कदम आगे बढ़कर कलाकार-रचनाकार अपनी भाव-भंगिमाओं को शब्दों के माध्यम से जब प्रस्तुत करता है तो नवरूप स्वरूप में ऐसी सर्जना समक्ष आ जाती है कि अंधियारे में लौ, वीराने में बहार प्रस्फुटित हो जाती है। कवि द्वारा कुछ शब्दों का ताना-बाना ऐसा बुना जाता है कि निष्क्रियता सक्रियता में परिवर्तित हो जाती है। यूं ही नहीं कवि को प्रजापति कहा गया है, वह अपने आंतरिक अनुभवों को समग्र समाज की वेदना, पीड़ा, खुशी-उल्लास में समाहित कर लेता है। यह सहेज संभाल ही समाज में रचनाकारों को विशिष्ट बनाती है।

ऐसी ही विशिष्टता वाले व्यक्तित्व का नाम है विनोद भावुक। हाल ही में इनको पहाड़ी भाषा के काव्य संग्रह ‘मेरियां गल्लां गाजलबेल’ के लिए डॉ विद्या चन्द पहाड़ी साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भावुक ने अपने रचनाकर्म में पहाड़ी भाषा को जिंदा किया है। वर्तमान समय में पहाड़ी भाषा के कई ऐसे शब्द है जिनसे आज हिमाचल में रहने वाले कई लोग परिचित भी नहीं। इन्होंने अपनी रचनाओं में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल बड़ी खूबसूरती से किया। इनकी रचनाओं में पहाड़ी संस्क‌ृति और पहाड़ी साहित्य के लिए अमूल्य धरोहर है। यही कारण है कि इस बार अकादमी ने इनके काव्य संग्रह मेरियां गल्लां गाजलबेल को डॉ विद्या चंद साहित्य पुरस्कार प्रदान किया।
‘पिट्टी के छातिया फनोणा कितणा की।
रातीं दे मोयां जो रोणा कितणा की।।’
इनकी कविताएं वास्तव में जनमानस और लोकजीवन को अंदर तक छछती हुई दिखती हैं। कोई भी कविता ऐसी नहीं जिसमें वेदना, संवेदना, पीड़ा, दर्द न हो। आज वैसे तो महिलाओं के उत्थान का युग है। उनकी खूब आव-भगत भी हो रही है पर दूसरी दुनिया का सत्य अभी किसी से छिपा नहीं है। कन्या भ्रूण आज क्या सोच रहा है, उन्हीं के शब्दों में—
‘कुड़ियां बाद जे जम्मियां कुड़ियां,
जमदियाँ ही नीं गम्मियाँ कुड़ियां।
फिरी मुंडुआं दियाँ मंगिया मन्नतां,
पेटां बिच्च फिरी कम्मियां कुड़ियां।।’
सच! महिलाओं के प्रति कितनी पीड़ा है उनके हृदय में कि वे कहते हैं–
‘इस पेटे ते कितने सूरज जम्मे न,
चेहरे फिर भी ज़र्द म्हारे हेस्से च।
सब दे सब बेदर्द म्हारे हेस्से च,
बेशक कितणे मर्द म्हारे हेस्से च।।’

इन कविताओं के अध्ययन से यह अनुभूत होता है कि सच में ही महिलाओं का अंतर्मन ज्यों चीत्कार कर रहा है। आज विडंबना यह है कि जन्मदात्री माँ भी बिलखती-टूटती नजर आ रही है—
‘गर्म खंदोलू सबनां ताईं,
अप्पू सेन्ना सोई अम्मां।
पुतरां लाए बखरे चुल्हड़ू,
गुगल़घुटुआं रोई अम्मां।।’
रीति-रिवाजों का दंश झेलती नारियों की व्यथा-कथा भी कम मार्मिक नहीं है–
 धीयां नूहां छल़ियां कुल्हां,
मंगदिया आईयाँ बलि़याँ कुल्हां।
चैतर महीना लेया सुनाणा,
ढोलरुआँ बिच्च पल़ियां कुल्हां।।’
वास्तव में यह कैसी लोक संस्कृति और कैसे रीति-रिवाज हैं जिसमें महिलाओं को ही तड़पना पड़ता है और बलिदान भी होना पड़ता है। वर्तमान संदर्भ में यह बहुत बड़ा यक्ष प्रश्न है कि क्यों कन्याओं के पूजन किए जाते हैं जबकि उनके प्रति मान सम्मान की भावना ही नहीं। इसी तरह के कई और भी प्रश्न चिन्ह उन्होंने अपनी कविताओं में उठाए हैं।

कवि विनोद भावुक को उनके काव्य संग्रह मेरियां गल्लां गाजलबेल के लिए मिला साहित्य पुरस्कार

पत्रकारिता और घुमक्कड़ी से उन्होंने जगह-जगह की लोक-संस्कृति, जनजीवन, रहन-सहन को बड़ी नजदीकी से देखा है। हिमाचल प्रदेश में रहने वाली गद्दी जनजाति की पीड़ा उन्हें अंदर तक हिला गई है, तभी तो वे कहते हैं—
‘हंडणा पौणा जुगती गद्दिया,
चलणा वाया कुगती गद्दिया।
जिसदे हेस्से जोत लखोये,
मिलणी नीं है मुकती गद्दिया।।’

तथा ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ कहावत के कारण बहुत से लोग जब गद्दियों को सीख सुझाते हैं तो भावुक का भावुक मन कराह उठता है-
‘शंभू बणी ने सैह भेड्डां रेह्या चारदा।
अनपढ़ पुआल, शिव पुराण क्या करना।।’
और
‘कुड्डी च जां तक जल़दे म्याल़ रैह।
धारां हन्न गद्दी कडदे स्याल़ रैह।।’
मतलब कि जनजातीय क्षेत्रों में लोगों का जनजीवन काफी मुश्किलों से भरा होता है तथा घुमंतू लोगों का जीवन यापन अति दुष्कर।आज विडंबना यह है कि जब अफसरशाही लोगों का सही रूप से कार्य नहीं करती तो उन्हें लगता है—-
‘हाकम बोले सरकल अपणा,
मुंशी बोले ठाणे अपणे।
गूंगे अपणे, टोणे अपणे,
कुसने दुखड़े लाणे अपणे।।’
किसी भी कार्य की जब अति हो जाती है तो विस्फोट भी हो ही जाता है—
‘शेर बणी के जीणा चाचा,
भेड बणी नीं मरना चाचा।
दफ्तर दफ्तर बैहरे टोणे,
देणा पौणा है धरना चाचा।।’
कृषि प्रधान देश भारत की रीढ़ किसान को माना जाता है, वह चाहे जितनी भी मेहनत कर ले, आज भी उसे पूरा पूरा मेहनताना नहीं मिल पाता है। भावुक के शब्दों में एक बानगी की यह भी–
कणक बाह्यी तां भन्ने भिककड़,
मच मच्चेया तां गाह्या चिक्कड़।
जिणसां खातर मिट्टिया रुलदा,
हिस्से कैंह फिरी सुक्खे टिक्कड़।।’
सच में यह वही किसान है जो अपनी तड़फ और वेदना को छिपा पुनः नए-नए सपने देखना शुरू कर देता है–
‘मिट्टिया ने मिली के भावुक,
गास्से दे सुपणे बुणदा मिल्ला।’
कृषि परंपरा से जुड़े बैह्ड़ू, बटणा पौणे जोड़े अणमुक, कदी नीं झूठ गलांदियाँ बीड़ां, बजिया आदि कविताएं उन्हें जमीन से जुड़ा हुआ रचनाकार बना जाती हैं।

व्यंग्यात्मकता किसी भी रचनाकार का सबसे बड़ा और पैना हथियार होता है इसी से वह समाज में परिव्याप्त कई रूढ़ियों, अंधविश्वासों तथा भ्रष्ट व्यवस्था पर कस कस कर प्रहार करता है। भावुक की कविताएं भी इससे इतर नहीं हैं। अपनी कल-कल निनादिनी जनभाषा में उन्होंने साध साध कर शर संधान किया है।
‘रातीं खीस्से टोहणे वाला,
दिनें जपदा माल़ा कोई।।’
इसी तरह का एक और प्रसंग–
‘भूतां खातर छाड्डां छड़ियां,
चेलेयां खूब उड़ाए कुक्कड़।’
बेशक सड़कें आज के युग में उन्नति की भाग्य रेखाएं कही जाती हैं, किंतु —
‘खूब दयारां बल़ियाँ जे दित्तियां,
तां पहाड़ां जो गोह्न्दियां सड़कां।
अप्पु ने जे ग्लोन्दिया सड़कां,
सौगी बेई के रौंदियां सड़कां।।’

इस पुस्तक का शीर्षक  व्यंग्यात्मकता की बानगी प्रस्तुत करता है। गाजल़बेल भी अपने गुण धर्म की वजह से पीड़ित व्यक्ति को दिन में भी तारे दिखा देती है। इसी तरह भावुक की कविताएं किसी सर्जिकल स्ट्राइक से कम नहीं हैं। वे सच में चुभती हैं, परेशान करती हैं और पुनः ऐसा न करने के लिए संकल्प हेतु अपना प्रखर रूप साझा करती हैं।

 

साहित्यकार व अध्यापक डॉ विजय पुरी

यह लेख साहित्यकार व अध्यापक डॉ विजय कुमार पुरी ने प्रस्तुत किया। जिला कांगड़ा के पालमपुर के हंगलोह पदरा से संबंधित विजय पुरी हिमाचल के साहित्यकारों पर कई लेख लिख चुके हैं और कई पहाड़ी कवियों की काव्य रचनाओं पर लेख लिखने के अलावा वे स्वयं भी कविताएं लिखते हैं।

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