हिमाचल की वादियों समकालीन साहित्य में कई युवा नई शैली और नए बिंब के साथ अपनी दस्तकें दे रहे हैं। यह युवा अपनी बात अपनी रचनाओं के माध्यम से कहने के लिए अपनी जड़ें तलाश करना चाहतें हैं अपनी अस्तित्व को स्थापित करना चाहते हैं। इनका व्यवहार लताओं की तरह नहीं जिसे अपने अस्तित्व के लिए किसी बड़े पेड़ के साथ लिपट जाना है और वहीं अपने आप को खत्म कर देना है। यह युवा पुरानी रूढ़ि परंपराओं और सोच को बदलने ताकत रखते हैं। यह युवा सामर्थ और काबिलियत की बात करते हैं। कोई मशहूर शख्सियत इनका प्रमाणपत्र नहीं और कोई गुट इनका वजूद नहीं। यह युवा साहित्य का मकसद समझकर जानकर साहित्य का सृजन करना चाहती है। ऐसे ही एक शायर हैं कांगड़ा के वैद्यनाथ से संबंधित विकास राणा। साहित्य में रसा-बसा व्यक्तित्व और ग़ज़ल का सच्चा सेवक जिसे ग़ज़ल एक महबूब, दोस्त और हमनवा लगती है और जो ग़ज़ल के आईने से दुनिया की आबो-हवा देखता है। जिनका मानना है और यह सच है कि हिमाचल में ग़ज़ल है, कविता है और बेहतर साहित्य सृजन है लेकिन साहित्यिक परंपरा नहीं। ऐसा क्यों है, इसका दोष किसको दें? सरकार को, विभाग को, अकादमियों को या गुटबाजी को। नहीं, इसके जिम्मेदार यहां के साहित्यकार और हम आप जैसे लोग ही हैं जो साहित्यिक परंपरा को स्थापित नहीं कर पाते, जिनका बस संस्थाएं बनाने में विश्वास है और संस्थाओं के बहाने स्वयंभू, सर्वेसर्वा होने की राजनीति करना है।
अब ग़ज़ल महबूब की गेसू का ही ख़म नहीं
हिमाचल में साहित्यिक परंपरा न बन पाने की वजह हम जैसों का वैसा माहौन न बना पाना और न ऐसी परंपरा रख पाना ही है। इसके लिए भूतकाल या फिर वर्तमान को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। शायर विकास की ही कलम से:–
न मिट्टी में न पानी में कमी है
हमारी बाग़बानी में कमी है
हिमाचल में ग़ज़ल की बात की जाए तो बहुत शायर ग़ज़ल विधा में बखूबी अपनी कलम चला रहे हैं। समय के साथ ग़ज़ल ने भी कई तब्दीलियां आईं हैं। अब ग़ज़ल महबूब की गेसू का ख़म ही बनकर नहीं रह गई है, बल्कि आम फहम तक पहुंचने का रास्ता भी बनी है। ग़ज़ल में कई तरह के बिंबों का प्रयोग किया जा रहा है और भाषा
में भी कई तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं। अब ग़ज़ल हिंदी-उर्दू की बहस बनकर नहीं रह गई है। अब हर जुबान ग़ज़ल की जुबान बन रही है। यह सब भाषाओं के प्रयोग और नए शैली, नए बिंब के प्रयोग से हो रहा है। हिमाचल में विकास राणा ऐसे ही शायर है जो ग़ज़ल के लिए संजीदा है, जो ग़ज़ल जीता है। हिमाचल और हिमाचल के पहाड़ों के दर्द को भी यह शायर बड़ी संजीदगी से महसूस करता है। समय ने समाजिक और भूगौलिक परिवर्तन मानव जीवन के सामने रखे हैं। इसमें सकारात्मक से ज्यादा नकारात्मक प्रभाव सामने आए हैं। पहाड़ों में बसने वाले हर दूर्गम क्षेत्र तक सड़कें पहुंच गई हैं लेकिन इससे पहाड़ों को जो नुकसान हुआ है वो भूगौलिक दृष्टि से सही नहीं। उन्हीं हालात को बखूबी अपनी शायरी में विकास ने पेश किया है:-
इनकी पीठ पर शायद हक़ गिलहरियों का था
हाय! इन पहाड़ों पर गाड़ियां क्यों चलती हैं
विकास की शायरी में हिमाचल और हिमाचल की प्रकृति की छटा कई बिंबों के रूप में उभरकर ग़ज़ल की नई शैली और खूबसूरत तस्वीर बनाती है। ऐसी ही यह ग़ज़लें हैं :-
ग़ज़ल
किसने फ़ज़ा बनाई है ये किसके पेड़ हैं
इससे भी पहले सोचता हूँ कितने पेड़ हैं
किसकी तरफ रहूं मैं मकाँ हो मेरा या दश्त
अच्छे नहीं है लोग यहाँ अच्छे पेड़ हैं
हमको समझ न आई कभी इनकी बातचीत
हमने फक़त ये जान लिया गूंगे पेड़ हैं
इस घर से कोई पूछे तो उसको बताऊं मैं
इतने हसीन पेड़ हैं किस घर के पेड़ हैं
यूँ सर हिला हिला के ये कहते हैं मान जा
हमसे लिपट के रो तेरे हम अपने पेड़ हैं
ग़ज़ल
चाँद की परछाई पे कुछ बेल-बूटे डाल कर
मैंने ये फुलकारी तुझको हिज्र में ओढानी है
तशनगी की प्लेट में इक धूप का टुकड़ा , ख़ुदा
तेरी इस दरियादिली पे आंख पानी पानी है
सब तुम्हारी ओर हैं जंगल हवा पानी पहाड़
बस कि मेरी और अब इक धूप है जो आनी है
धुंध में बैठे हुए हैं सब तपस्या में पहाड़
और रवाँ माला फिराता रुल* नदी का पानी है
हिमाचल के शायरों में विकास राणा ग़ज़ल में नए प्रयोग कर रहे हैं और एक नया माहौल कायम कर रहे हैं। यह कहना ग़लत नहीं कि हिमाचल में ग़ज़ल की नई शम्अ-ए-फिरोजां हैं विकास राणा।
शायर विकास राणा की ग़ज़लें
ग़ज़ल
मेरा जो भी क़िस्सा होगा
वो उस पर भी बीता होगा
जाने क्या क्या भूली होगी
उसको जब याद आया होगा
मुट्ठी में कुछ रख कर पूछे
बेटी होगी, बेटा होगा
कूंजें कुरलातीं थीं, फिर से
क्या सावन लौट आया होगा
मैंने तो मिट्टी होना है
तूने भी कुछ सोचा होगा
ख़ाब आँखों के खुलते ही फिर
काजल काजल फैला होगा
उसके बाद की मैं क्या जानूं
पहले माथा चूमा होगा
वो मुझसे मिलने को तरसे
ऐसा हो तो कैसा होगा
दीवाने पर हँसने वालो
दीवाना भी हंसता होगा
और कोई क्यूँ सूरत देखूं
सूफ़ी सूफ़ी जैसा होगा
ग़ज़ल
मेरे लिए तो कुछ भी नहीं था ख़ज़ाने में
आंखों नें ही जल्दी की चुंधियाने में
घर के अंदर दुनिया के वीराने में
लुत्फ़ आएगा चुपके से मर जाने में
बुतख़ाने से ले जाओ मैख़ाने में
हमने रस्ते उलझाये सुलझाने में
लौट आया मैंने साहिल की मानी बात
प्यास बढ़ेगी और भी प्यास बुझाने में
दिल वो पत्थर जिसमे एक अहिल्या है
लेकिन कोई राम नहीं अफ़साने में
मौत आने तक ज़िंदा रहना आम नहीं
मुझको सारी उम्र लगी घर आने में
झूठे मूठे इश्क़ किए और जोग लिया
अच्छी ख़ासी नींद लगी सुसताने में
मैने अच्छे शेर कहे और दाद भी ली
कैसे कैसे काम हुए अंजाने में
ग़ज़ल
हो अंधेरा उजाला दर्शन है
ये पलक दरमियानी अड़चन है
अब जो तक़सीम हो तो ध्यान रहे
जोग उसका है मेरा जोबन है
दान कर दो नदी को अपने भंवर
ये पहाड़न बड़ी उदासन है
रास्ते जाते-आते कहते हैं
उसके पैरों की अपनी छन छन है
आज का मसअला कुछ और है दोस्त
ये उदासी नहीं है उलझन है
बहुत बहुत ख़ूब! विकास राणा की शायरी के मुरीद हम भी हैं। सच्चे इंसान, बेहतरीन शायर।