10.8 C
New York
Tuesday, October 29, 2024

साहित्य संडे : अर्की के शायर कुलदीप तरुण की ग़ज़लों में जुल्फों के पेच नहीं जिंदगी के ख़म

बकौल शायर शीन काफ निजाम, ग़ज़ल एक आर्ट है। अपने आप से और दुनिया के ग़म के करीब जाने की सिन्फ है ग़ज़ल। आज ग़ज़ल ग़मे-जानां से ग़मे-जमाना तक सफर तय कर रही है। एक समय था कि ग़ज़ल में महबूब की जुल्फों के पेच होते थे और उसके ख्यालों के ख़म होते थे, लेकिन आज ग़ज़ल एक मजदूर के लिए रोटी की आवाज है। आम

आदमी के हालात का तज़किरा है जिंदगी की कश्मकश की सदा है और ऐसी ही एक सदा-ए-ग़ज़ल हैं जिला सोलन के अर्की गांव वनिया देवी के शायर कुलदीप गर्ग ‘तरुण’ । शायर तरुण की ग़ज़लों में आम जिंदगी के तजुर्बात उभरकर आते हैं। इसका एक कारण है कि जैसे हालात से शायर गुजरता है और समझता है वही मनोस्थिति उसकी लेखनी में उभरकर आती है। कुलदीप अर्की में दुकान करते हैं और रोज़ आम आदमी की कश्मकश से रू-ब-रू होते हैं। आज के दौर में आम आदमी के संघर्ष क्या हैं रोजी रोटी के लिए और किन तकलीफों से गुजरकर वो घर परिवार चलाता है। इन हालात को अपनी शायरी का मौजू़ बनाकर कुलदीप को सदा-ए-आम कहना ग़लत नहीं। आज उन्हीं की कुछ ग़ज़लों से रू-ब-रू होते हैं।

कुलदीप गर्ग ‘तरुण’ की कुछ बेहतरीन ग़ज़लें

शायर कुलदीप गर्ग ‘तरुण’ , अर्की सोलन

ग़ज़ल
उन आँखों को हसीं- तर कुछ नहीं है
जिन आँखों को मयस्सर कुछ नहीं है

मैं अपना कर्म कर सकता हूँ बस कर्म
वही जाने उजागर कुछ नहीं है

मुहब्बत के सिवा आसान है सब
जहाँ में और दूभर कुछ नहीं है

पले बस नफरतें ही जिसके दिल में
कहे वो ही कि सुन्दर कुछ नहीं है

सुनेगा कौन और किससे कहूँ मैं
मेरे हिस्से में क्योंकर कुछ नहीं है

बहुत कुछ देखा पर दुनिया में उसके
हसीं चेहरे से सुन्दर कुछ नहीं है

बचानी है मुझे दस्तार अपनी
तरुण मेरे लिए सर कुछ नहीं है
 ग़ज़ल
 गीत ख़ुशियों के दिल से गा न सके
ज़िंदगी! तुमसे हम निभा न सके

ज़िंदगी! तुमसे मिलते भी कैसे
ख़ुद को हम आइना दिखा न सके

ग़म रहा उम्र भर यही कि तुम्हें
ज़िंदगी हम गले लगा न सके

ख़्वाहिशों के मकान में जो बसे
घर कभी लौट कर वो आ न सके

बात सुनता भी कोई कैसे भला
आसमाँ सिर पे हम उठा न सके

मंज़िलें कब हुई नसीब उन्हें
धूप में ख़ुद को जो तपा न सके

बोझ था जिम्मेदारियों का तरुण
दर्द को दर्द भी बता न सके

 ग़ज़ल
ज़िंदगी तेरे उसूलों पे ही चल कर मैंने
लम्हा दर लम्हा बिलोया है समन्दर मैंने

दुनिया दारी की समझ उनकी बदौलत आयी
पीठ पर अपनों से खाए हैं जो ख़ंजर मैंने

इनके महलों की न रानाई पे जाना लोगों
नींव के देखें हैं रोते हुए पत्थर मैंने

आज मंज़ूर नहीं ख़ुशियों में अपनी उनको
रास्ते जिनके किये रोज़ मुनव्वर मैंने

पाँव पर अपने रखे रखना यक़ीं , देखें हैं
राह भरमाते हुए कितने ही रहबर मैंने

इश्क़ से और नहीं कोई बड़ी शै, खाली
हाथ जाते हुए देखें हैं सिकन्दर मैंने

मुश्किलें किसके नहीं आती सफ़र में लेकिन
एक उसका ही रखा मन में, तरुण डर मैंने

 ग़ज़ल
 एक अवसर का तलबगार लिए फिरता है
आदमी दोहरा किरदार लिए फिरता है

नफ़रतों की कोई तलवार लिए फिरता है
कोई अल्फ़ाज़ के हथिहार लिए फिरता है

माँगने में जो करे शर्म ख़ुदा के दर पर
दर ब दर अपनी वो दरकार लिए फिरता है

घर की दहलीज का भी सौदा किया है उसने
इश्क़ से वो जो सरोकार लिए फिरता है

दुनिया दारी से नहीं कोई भी मतलब उसको
साथ अपने वो जो बाज़ार लिए फिरता है

तेरी दुनिया भी अजब दुनिया है मेरे मौला
आसमाँ सा कोई आकार लिए फिरता है

पत्ता भी उसकी इज़ाज़त के बिना हिलता नहीं
तू तो बेकार तरुण भार लिए फिरता है

कुलदीप गर्ग तरुण
शायर का पता : गाँव वनिया देवी, डा० बखालग, त० अर्की,जिला सोलन हि०प्र० 9816467527

Related Articles

1 COMMENT

  1. निसंदेह तरुण जी हिन्दी ग़ज़ल के तरुण हस्ताक्षर है जो गज़ल़ के शिल्प में पारंगत होने के साथ साथ ग़ज़ल को जी कर लिखते हैं । यही कारण है कि इनकी शायरी में स्वभाविकता और नैसर्गिक सौन्दर्य दिखता है । ऊपरी हिमाचल की बात करें तो इनको अग्रगण्य शायरों में शामिल किया जाता है

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

22,878FansLike
0FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
www.classicshop.club

Latest Articles